भ्रष्टाचारण – ये कौन बोला
जहाँ कहीं भी सँसाधन की उपलब्धता माँगने वालों से कम होती है और उन कम
सँसाधनों का बँटवारा स्वयँ एक समस्या बन जाती है वहाँ इस बँटवारा समस्या को
भ्रष्टाचार के नियमों से हल किया जाता है।
· जब राशन कम हो
और राशन कार्ड अधिक हों और उद्देश्य राशन पाना हो
· जब लाईन लंबी हो
और आपके पास समय कम हो और उद्देश्य काऊँटर पर पहुँचना हो
· जब सीटें कम हों
और एडमिशन चाहने वाले ज्यादा हों और उद्देश्य एडमिशन पाना हो
ऐसे अनेक दृष्टाँत हो सकते हैं। समस्या कैसे सुलझाई जाए? इन सब बातों में एक मात्र उपाय
अपने स्थान को सुरक्षित करना होता है।
कुछ सिद्धाँतकार ऐसे में किसी नियम जैसे कि मैरिट-लिस्ट आदि के द्वारा समाधान
का सुझाव दे सकते हैं। लेकिन इस उन लोगों को कैसे संतुष्ट करें जो मैरिट-लिस्ट से
बाहर रह गए हैं, जो असफल हो गए हैं। उन्हें असँतोष होता है। यह असँतोष तब अधिक भीषण होता है जब
बाहर रह गए लोग अधिक साधनसम्पन्न हों। यह समस्या का यथार्थ रूप है। सफलता के
आकाँक्षी लोगों को असफलता का स्पष्टीकरण (जैसा कि मैरिट-लिस्ट) नहीं चाहिए बल्कि
सफलता की प्राप्ति चाहिए। उन्हें अपनी सीट चाहिए। बस यहीं से भ्रष्टाचारण का विचार
पनपता है।
जिस बात को लोग भ्रष्टाचारण कह रहे हैं वह एक पूरा दर्शन(शास्त्र) है उसे सही
परिप्रेक्ष्य में समझा जाना चाहिए। और यह दर्शन ऐसे है कि संसाधनों को विश्व –
विजयी होना चाहिये। उसे सबसे ऊपर यहाँ तक कि मैरिट से भी ऊपर होना चाहिए। इसके लिए
संसाधनों का एक भाग सिर्फ इस लिये व्यय कर दिया जाता है ताकि शेष संसाधन सर्वोच्च
शिखर पर विराज सकें। इसी शिखर पर सीट और सफलता रहते हैं।
मुद्दा यह है कि भ्रष्टाचारण को किस दृष्टि से देखा जाता है। सर्वप्रथम तो इसे
इसके दार्शनिक परिप्रेक्षय में समझा जाना चाहिये। अलग अलग स्थितियों में यह अलग
अलग नजर आता है। यदि यह किसी की सहायता करता है तो वह इसका चयन कर लेता है और अगर
यह प्रतिद्वंद्वी की सहायता करता है तो इसकी आलोचना की जाती है। भ्रष्टाचारण के
प्रति आपका नज़रिया मूलतः इसके द्वारा पड़ने वाले प्रभाव से तय होता है। यह तरीका –
सुविधामूलक आलोचना कहलाता है।
इस देश-काल में भ्रष्टाचारण के प्रति कही जा रही उग्र और भीषण बातें मुख्यतः
इसी सुविधामूलक आलोचना से पैदा हुई बातें हैं। दिल्ली में, या फिर कहें कि पूरे
समाज में ऐसे कितने मातपिता हैं जो स्कूल से दूरी के नियमों का उल्लँघन करके भी
अपने बच्चों का दाखिला किसी प्रतिष्ठित स्कूल में करवाने से खुद को रोक पाएँगे।
कितने लोग होंगे जो ड्राईविंग लाइसेंस के लिए कुछ रुपये खर्च करने की बजाए सब
कागजातों और मेडिकल चैकअप के चक्कर में पड़ना चाहेंगे?
मेरा काम पहले हो जाए, सुविधा से हो जाए, बिना किसी ज़रब पड़े हो जाए – इसके
लिए थोड़ा बहुत खर्च भी करना पड़े तो कोई बात नहीं। आराम के लिए ही तो कमाते हैं।
यह सोच ही संसाधन सम्पन्न सोच है। यही सोच नियमों के उल्लँघन को प्रेरित करती है।
परन्तु यह सोच बहुत स्वभाविक है। जैसे जैसे व्यक्ति आर्थिक प्रगति करता है वैसे
वैसे वह अपने समय का आर्थिक आकलन करने लगता है। यदि किसी निश्चित समय में व्यक्ति
घूस की रकम की तुलना में अधिक आय अर्जित कर सकता है तो वह घूस का सहारा लेता है।
यह स्वतः उपजा हुआ भ्रष्टाचारण है। यह कर्ता के द्वारा खुद किया जाता है।
यह घूस का सवाल तब और मुश्किल बन जाता है जब किसी अवसर के लिए एक से अधिक
प्रतिद्वंद्वी हों। यदि ये प्रतिद्वंद्वी समान रूप से योग्य हों, मैरिटधारी हों तो
प्रश्न और अधिक ज्वलँत बन जाता है। मानवीय स्वभाव के अनुसार वाँछित परिणाम के लिए
सभी प्रतिद्वंद्वी पूरा प्रयास करेंगे। प्रयासों की यह आवश्यकता ही उन कामों की
जननी है जिन्हें आजकल कुछ लोग भ्रष्टाचारण कह रहे हैं।
आजकल कुछ लोग मीडिया में छाए हुए हैं। वे लोग भ्रष्टाचारण को खत्म करने का
आश्वासन दे रहे हैं, हुँकार भर रहे हैं। उन लोगों को बताना चाहिए कि ऐसा करके वे
क्या कहना चाह रहे हैं? क्या वे कह रहे हैं कि वे किसी भी कीमत पर सफल होने की मानवीय जिजिविषा को
रोकने की बात कह रहे हैं? क्या वे ज्ञात इतिहास के मानवीय विकास-क्रम को मोड़ देने की बात कर रहे हैं।
या वे जनता को मात्र बहका रहे हैं।
ऐसे ज्ञानियों में से कुछ को लग सकता है कि
यह लेख उक्त भ्रष्टाचारण की प्रशँसा कर रहा है। ऐसा नहीं है। यह लेख
भ्रष्टाचारण की ना तो प्रशँसा करता है ना ही निँदा। यह तो भ्रष्टाचारण को समझने की
कोशिश करता है। यह उन दावों और वादों को भी समझने की कोशिश करता है जो बिना समझे
बूझे ही भ्रष्टाचारण के सम्बंध में किये जा रहे हैं।
भ्रष्टाचारण एक मानवीय प्रवृत्ति है, यह जन्मजात है, यह जिन्दा रहने की ललक का
नतीजा है, यह ऊँचाई की दौड़ में सर्वोच्चता पाने की चाहत की बुनियाद पर खड़ी है।
आज का सिस्टम इस मानवीय प्रवृत्ति को एक बुरा नाम – भ्रष्टाचारण देता है। पता नहीं
भविष्य क्या करेगा। हो सकता है यह प्रवृत्ति उपयोगी हो, पीड़ादायक हो, छलावा हो, निर्णायक हो, उत्तेजक हो,
आनन्ददायी हो, शूलकारक हो – जो भी हो यह एक मानवीय आदिम प्रवृत्ति है और इसके बिना
मानव नाम का यह जीव इस विकास अवस्था तक नहीं आ सकता था। इस प्रवृत्ति को इसी रूप में
समझा जाना चाहिए।