Sunday, August 3, 2014

मोदी का Niche Market प्रयोग

मोदी का Niche Market प्रयोग

 

1984 में काँग्रेस ने एक क्लीन स्वीप मैन्डेट प्राप्त किया था और भाजपा को मात्र दो सीटें मिलीं थी। तब लोगों ने भाजपा के खत्म हो जाने की बात की थी। लेकिन श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे एक अन्य प्रकार से परिभाषित किया था। उन्होंने कहा था कि भाजपा ने सौ से अधिक स्थानों पर दूसरा स्थान प्राप्त किया है जो उसकी क्षमताओं और भविष्य के सुनहरेपन की ओर संकेत करता है। उनकी यह बात इतिहास में सच साबित हुई भी है। राजनीति में कई बार मरिचिकाएँ पैदा होती हैं। होता कुछ है तथा दिखाई कुछ और देता है।

1984 जैसा ही कुछ तीस बरसों के बाद 2014 में हुआ हालाँकि यह बिल्कुल भिन्न कारणों से हुआ। 1984 में यह स्वर्गीय श्रीमति गाँधी के प्रति सहानुभूति से पैदा हुआ था और 2014 में यह श्री मोदी के करिश्मे से हुआ है। एक दल और उसके गठबँधन को लोगों ने सिर आँखों पर बैठा लिया है और ऐसा लग रहा है कि अन्य सभी दल राजनीतिक भू-दृश्य के पिछवाड़े में फैंक दिये गये हैं। काँग्रेस को पहली बार 50 से भी कम सीटें मिलीं हैं। पूरा उत्तर प्रदेश भगवा हो गया है। इस रणभूमि के दो जाने माने यौद्धा – सपा और बसपा, खून से लथपथ पड़े दिख रहे हैं। प्रथम दृष्टया उत्तर प्रदेश से गैर-भाजपा राजनीति का विलोप हो गया लगता है। यही सामने बोर्ड पर लिखा संदेश दिखाई पड़ता है। प्रश्न है कि यह संदेश सच्चाई है या केवल आँखों का धोखा मात्र है। यह राजनीतिक सच्चाई है यह यह भी कोई दोपहरी वाली मरीचिका ही है जिसके नीचे या पीछे कुछ अलग तरह का सच है। इसके गंभीर विवेचन की आवश्यकता है। आओ देखें।

सबसे पहले 2014 के रंगमंच को निहारते हैं तो काँग्रेस अपने पुराने नारे (गरीबी हटाओ) के एक नए संस्करण के साथ खड़ी है और हाथों में उसने – खाद्य सुरक्षा बिल थाम रखा है। मोदी विकास वाद की हुँकार भर रहे हैं। गुजराती गवर्नेंस का मुकुट भी उन्होंने पहन रखा है। समाजवादी पार्टी अपने सामाजिक समरसता वाले विचारों और अपनी सरकारी उपलब्धियों की किताब के पाठ सुनाती पड़ रही है। एक अन्य तरफ़ बहनजी अपने नीले रथ पर सवार हैं। लेकिन उनके अस्त्र शस्त्र वही परमपरागत पहचान वाले लग रहे हैं जो पिछले चुनावी रण में भी इस्तेमाल किये गये थे।

इस बार इस चुनाव को मोदी ने अपनी शर्तों पर लड़ा है। इस बार के चुनाव में यह बात मोदी ने तय की कि इस चुनाव की कसौटी क्या होनी चाहिए और फिर उस कसौटी पर खुद को सफल दिखा दिया। मोदी ही तय कर रहे थे कि कौन सा नायक इस चुनाव 2014 की पटकथा में क्या भूमिका निभाएगा? मोदी के इतर किसी व्यक्ति या दल का यह पता ही नहीं था कि किया क्या जा रहा था? और जब तक उन्हें पता लग पाता तब तक चुनावी नतीजे आ चुके थे। कुछ गंभीर विश्लेषक तक यहाँ तक कहते हैं कि न सिर्फ अन्य विपक्षी दलों बल्कि जनता तक को पता नहीं चला कि इस चुनाव में वस्तुतः हो क्या रहा था? इस चक्रव्यूह का लाभ यह हुआ कि ना तो विपक्षी दल इसका हल ढूँढ पाए और ना ही मोदी के खिलाफ कोई प्रभावी वार कर पाए।

अब इस सारी तकनीक को सरल रूप में समझते हैं। अंग्रेजी में नॉर्डिक मूल का एक शब्द है – निच् (Niche)। जब इसे बाजार प्रणाली के संदर्भ में इस्तेमाल किया जाता है तो यह कहलाता है निच् मार्केट (Niche Market)। इसे प्रयोग के द्वारा समझना आसान रहेगा। उदाहरणार्थ बाजार में दस फूड सप्लीमैंट्स हैं जो बालकों को प्रचुर कैलशियम उपलब्ध करवाने का दावा करते हैं। दसों फूड सप्लीमैंट्स में बिक्री के लिए घमासान मचा हुआ है। प्रचार पर भारी पैसा खर्चा किया जा रहा है। अचानक एक फूड सप्लीमैंट का निर्माता जनता को कहना शुरू करता है कि उसके सप्लीमैंट में एक ऐसा साल्ट भी है जो सप्लीमैंट वाले कैलशियम को शरीर तक पहुँचाता है। बिना साल्ट वाला कैलशियम किसी मतलब का नहीं है। वह यूँ ही शरीर से बाहर फेंक दिया जाएगा। साल्ट के बिना कैल्शियम तो बस मिट्टी जैसा है। अब उपभोक्ता सब कुछ भूलकर साल्ट वाले कैलशियम को खरीदने के लिए दौड़ पड़ते हैं। साल्ट वाला सप्लीमैंट बाजी मार लेता है। शेष सप्लीमैंट समान गुणवत्ता के होते हुए भी पीछे रह जाते हैं।

इस उदाहरण वाली बाजार प्रणाली में न सिर्फ प्रोडक्ट बेचा जा रहा है बल्कि एक ऐसी कसौटी भी साथ दी जा रही है जिस पर उस उत्पाद को कसा जाएगा। सामान्य नियमों के तहत् यह कसौटी उपभोक्ता की खुद की होनी चाहिए परन्तु बाजार की चतुराई यह है कि प्रोडक्ट का निर्माता स्वयं ही इस कसौटी को रच कर उपभोक्ता को थमा देता है। अब प्रोडक्ट भी उसी का है और प्रोडक्ट को जाँचने की कसौटी भी उसी निर्माता की है। अतः अब लाभ भी निश्चित ही उसी का हो जाता है। चुनाव 2014 में यही मोदी ने भी किया है।

राजनीति में इस निच् मार्केट का यह पहला प्रयोग नहीं है। श्रीमति इन्दिरा गाँधी – गरीबी हटाओ का सफल निच् मार्केट प्रयोग 70 के दशक में कर चुकी हैं। कुछ पहले 2013 में श्री केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा में यही प्रयोग किया था। वहाँ उनका निच् था – भ्रष्टाचार उन्मूलन। केजरीवाल के पास भ्रष्टाचार उन्मूलन का कोई धवल रिकार्ड नहीं था बस जोरदार अन्ना आन्दोलन के सहारे उन्होंने सफलता पूर्वक यह दिखा दिया कि पूरी दिल्ली में केवल वही भ्रष्टाचार उन्मूलन कर सकते हैं। हालाँकि विधानसभा जीतने के बाद उन्होंने अपने निच् मार्केट में कुछ डाइल्यूशन किया। समाज-सुधार व साम्प्रदायिकता आदि मुद्दे जोड़ दिये। अनुभव कम था सो लोकसभा जीतने की जल्दबाजी में वो यह नहीं देख पाए कि साम्प्रदायिकता मुद्दे के उनसे बड़े राजनीतिक व्यापारी तो चुनावी बाजार में उनसे पहले से ही मौजूद थे। निच् मार्केट के डाइल्यूशन और कुछेक अन्य कारणों ने केजरीवाल को लुप्तप्रायः प्रजातियों की श्रेणी में लाकर रख दिया।

मोदी का निच् मार्केट था – विकास। इसे उन्होंने कुछेक सहायक सब- निच् मार्केट (Sub Niche Market) प्रत्ययों जैसे सबका विकास सबका साथ, भारतीय गौरव, सरकारी अकर्मण्यता के प्रति रोष आदि के साथ जोड़ दिया। और कमाल हो गया। विरोधियों को सूझा ही नहीं कि साम्प्रदायिकता आदि को लेकर जिस मोदी विरोध की तैयारी उन्होंने कर रखी थी और जो अब अचानक भोथरे हो गए थे उनका क्या किया जाए ?  और जब तक विपक्ष इस किंकर्त्तव्यविमूढ़ता से बाहर आता तब तक चुनाव खत्म हो चुके थे। इस नई व्यवस्था में चहुँ ओर मोदी ही मोदी हैं।

तो क्या यह राजनीतिक अवसान शुरू हो चुका है ? क्या भारतीय राजनीति अपने चरम् विकास को प्राप्त कर चुकी है ? क्या भारत में राजनीति समाप्त होने वाली है ?

भारत में सामाजिक विषमताओं का इतिहास रहा है। इसीलिये 1929 के रावी सम्मेलन में नेहरू जी को अपने समाजवादी सरोकारों को स्वीकार करना पड़ा था। भारतीय चुनावों में कांग्रेस की चरम विजय गाथाओं के बावजूद किसी ना किसी रूप में समाजवादी आंदोलन भारत में एक अनिवार्यता बनी रही। वर्तमान में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी उसी समाजवादी आंदोलन के विकसित रूप हैं।

विकास की जिस अवधारणा को मोदी जी अवतरित करना चाहते हैं वह मूल स्वरूप में लगभग वही है जिसे नरसिंह राव सरकार ने शुरू किया था और मनमोहन सरकार ने जिसे पाला पोसा था। अब तक जिन सुधारों की बात मोदी जी ने की है वे केवल कॉस्मैटिक सुधार हैं। मोदी द्वारा प्रतिपादित सुधार नरसिंह-मनमोहन सिद्धाँत से आमूल चूल भिन्न नहीं हैं। मनमोहन सिंह के लिये अस्वीकार्यता और मोदी की स्वीकार्यता के बीच केवल बालिश्त भर का ही अंतर है। इस सिद्धाँत का प्रतिछोर अभी भी सामाजिक न्याय का सिद्धाँत है जो आज के समय में भी केवल सपा और बसपा ने ही थाम रखा है। यदि मोदी का विकास इस देश का सपना है तो सामाजिक न्याय यहाँ की हकीकत है। जिस समय भी आप नींद की खुमारी से बाहर आएंगे तो हकीकत की जमीन पर ही खड़ा होना होगा।

सामाजिक न्याय को हकीकत कहने का अर्थ यह नहीं कि नेहरू जी के प्रजातान्त्रिक समाजवाद को पुनर्जीवित किया जाए या आचार्य नरेन्द्र देव के किसी नए अवतार को खोजा जाए। इतिहासों में दोहराए जाने की सुविधा नहीं होती। यहाँ सदैव नूतनता ही फलती है। पुराने को मिटना होता है। समाजवाद की पारम्परिक अवधारणा में मुफ्त राशन और सस्ते राशन की सुविधाओं की बात की जाती थी अब उतने से काम नहीं चलने वाला है। सामाजिक न्याय की नई अवधारणा में भी राशन की पूरी मात्रा या मिट्टी के तेल की सुविधा के बजाय आधुनिक सोच की जैसे – समाज के अंतिम व्यक्ति को बेजा कराधान से मुक्ति, इंस्पेक्टरों के कहर से सुरक्षा, नए सॉफ्टवेयरों के विकास का ढाँचा आदि को विकसित करना होगा। विचार को मुफ्त लैपटॉप वितरण से भी आगे सुगम इलेक्ट्रॉनिक विकास का सोचना होगा। जैसे जैसे समय आगे बढ़ता है सामाजिक न्याय की अवधारणा भी अपने अर्थों में विकसित होती है। और इसे होना भी चाहिए। ताकि विकास एक लुभावने नारे की परिधि से बाहर निकल कर सामाजिक न्याय की अवधारणा का ही एक आयाम बन जाए। जिस दिन ऐसा हो पाएगा इक्कीसवीं सदी का सामाजिक न्याय मूर्तिमान होकर हकीकत बन जाएगा।

लोकतंत्र में केवल दो ही प्रकार के समय होते हैं। पहला चुनावों का समय और दूसरा चुनावों की तैयारी का समय। मोदी ने इस सिद्धाँत को समझा। भीषण तैयारी की और चुनाव जीत गये। फिलहाल यह चुनाव तैयारी का समय है। अब देखना यह है कि कितने लोग या दल इस सिद्धाँत को समझ कर चुनाव की तैयारी के समय का सदुपयोग कर पाते हैं ताकि चुनाव समय पर वे  अपनी सीटें जीतते हुए खुशी महसूस कर पाएँ।


THE COMPLETE ARTICLE IS AT

http://psmalik.com/charcha/228-vichardara

Thursday, May 22, 2014

समुद्र मंथन की समाप्ति और एक बिलखता हुआ योद्धा

समुद्र मंथन की समाप्ति और एक बिलखता हुआ योद्धा


भारतीय चुनावी समुद्रमंथन अब पुरा हो चुका है। भिन्न भिन्न देव-अदेव अपने अपने हिस्से के ऐरावत, कामधेनु, कल्पतरु और हलाहल पा चुके हैं। इच्छुक लोग अमृत-वितरण के लिए लाईन में बैठ चुके हैं। कमोबेश शांति सी ही लग रही है कि कहीं दूर से कोई कैटभ जैसी चीत्कार सुनाई पड़ती है। आओ देखें कि क्या हुआ?

...

आजकल एक कलाबाजी श्रीमान् निरन्तर आग्रहशील नेता जी और उनके सखा करते नजर आ रहे हैं। ये लोग अनवरत् आन्दोलनकारी हैं।  सामान्य जीवन भी इनके लिए एक आन्दोलन ही है।  चुनाव निकट देखकर इनके भीतर का आन्दोलन फिर जाग उठा है। जनता ने इन्हें जिस बुरी तरह से नापसंद किया है ये उससे भी कोई सबक नहीं लेना चाहते हैं। अब इन लोगों ने बलात् प्रसिद्धि के लिए कोर्ट-कचहरी को भी अपना अखाड़ा बना लिया है।  जब आप बनारस में लोकसभा चुनाव लड़ने के लिये गए थे तो भी एक लेख इसी मंच से लिखा गया था । आज चुनाव बाद वह लेख अपने सत्य के साथ आपके सामने खड़ा है।

हर आरोपी को अपनी उपस्थिति की जमानत देनी होती है। इसके लिए एक फॉर्म जिसे मुचलका या पर्सनल बॉन्ड कहते हैं उस पर साईन करने होते हैं। इसके लिए कोई नकद पैसा नहीं देना पड़ता। और यह कानून के द्वारा स्थापित एक प्रक्रिया है। सभी नागरिक इसका पालन करते हैं। क्योंकि कोई भी व्यक्ति कानून से बड़ा नहीं हो सकता तो सभी इस प्रक्रिया को समान रूप से मानते चले आ रहे हैं। श्रीमान केजरीवाल का कहना है कि वे ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि उनका उसूल ऐसा करने के खिलाफ़ है। लोग पूछ रहे हैं कि केजरीवाल जी देश कानूनों से चलेगा या आपके खुद के उसूलों से चलेगा। वे उसूल जो आपकी सुविधा के मुताबिक कभी भी बिना पूर्व चेतावनी के बदल जाते हैं और कोई भी ऐसा नया रूप धर लेते हैं जिससे आपको अपना फ़ायदा होता है।

आजकल का समय राजनीति में प्रपंच करने का नहीं रह गया है। जनता परफॉर्मैंस चाहती है। परफॉर्मैंस के नाम पर धरने, भीड़, सड़क जाम और बेकार की नौटंकियाँ आजकल जनता को आकर्षित नहीं करती हैं। इसलिए ये कैलकुलेट अब आपको करना है कि बाकी का समय आप नए प्रपंचों को अविष्कृत करने में लगाएँगे या जनता की सेवार्थ कुछ सच्चे काम कर के दिखाएँगे।

सँभलने के लिये समय बहुत ज्यादा नहीं बचा हुआ है।


FOR COMPLETE ARTICLE PLEASE VISIT THE LINK

Saturday, February 1, 2014

AAP क्राँति – पराकाष्ठा से पराभव तक

AAP क्राँति पराकाष्ठा से पराभव तक


  • इस दुनिया में एक पूजक सँस्कृति है। वह पूजती है। पूजने का उसका अपना इतिहास है।
  • उस सँस्कृति ने सब कुछ पूजा उसने चूहा पूजा, शेर पूजा, बैल पूजा, गाय को पूजा, भैंसे को पूजा, वृक्ष को पूजा, दिशाओं को पूजा, हवा को पूजा, जल को पूजा, और अग्नि को पूजा।
  • अब सबसे अँत में उसने दिव्य, हुतात्मा, वँदनीय, स्मरणीय, पापों का नाश करने वाले, दुखों को दूर करने वाले, ऋद्धि सिद्धी के दाता, विद्याओं के जनक, तर्क आदि शास्त्रों के ज्ञाता अविनाशी देव केजरीवाल को पूजा।
  • यह सँस्कृति जो भारत भूमि पर पाई जाती है गाँधी नाम के एक महात्मा को पूजती रही है और इसका लाभ कुछ दल लेते रहे हैं इतिहास में ऐसे दलों को काँग्रेस नाम की संज्ञा से जाना गया है।
  • यही सँस्कृति राम नामके एक अवतार को पूजती है और इसका लाभ कुछ अन्य दल लेते रहे हैं इतिहास में ऐसे दलों को भाजपा नामक संज्ञा से जाना गया है।
  • यह देख कर कुछ लोगों ने निश्चय किया कि चलो अब कुछ तूफानी हो जाए। उनके बीच में से उठ कर एक उत्तम पुरुष ने कहा कि इस बार वह पूज्य बनेगा।
  • उसने कहा कि उसमें अनेक गुण हैं वह अन्य सबसे उत्तम है, वह सबसे बेहतर विचारक है, सबसे बेहतर चिंतक है। उसने कहा कि अन्य सब प्रतीकों को भूल जाओ, वे पुराने पड़ गये हैं। पुराने प्रतीकों में जंग लग चुका है।
  • उसने कहा कि वह अवतारों की लिस्ट में लेटेस्ट है। उसने अनके चारण रख छोड़े जो उसका निरन्तर कीर्तन किये जा रहे थे। ये चारण कभी ना थकते थे। इनसे कुछ भी पूछो ये केजरी-रासौ गाना शुरू कर देते थे।
  • इस चारण मँडली ने बहुत गाना गाया। इन्होंने गा गाकर बताया कि सभी समस्याओं का हल प्रभू केजरी की लीलाओं में छिपा है। जल सम्बन्धी समस्या हो तो वह प्रभू केजरी की वँशी से ही ठीक होगी। विद्युत सम्वन्धी समस्या हो तो वह भगवान केजरी के आशीर्वाद से दूर होगी। उन चारणों ने गा गाकर बताया कि इसके अलावा महँगाई, भ्रष्टाचारण, घूसखोरी और पुलिस-प्रतारणा जैसी जितनी भी अन्य प्रेत-बाधाएँ हैं वे सब भी केजरी-भभूत लगाने से ही दूर होंगी।
  • उस पूजक सँस्कृति को लगा कि किसी नये अवतार के अवतरित होने की वेला आ गई है।
  • 4 नवम्बर 2013 को इस नये अवतार ने इस मृत्यु लोक में अवतरित होने की ठानी। रेडियो और दूरदर्शन आदि पर घोषणाएँ की गईं कि अवतार ने जन्म ले लिया है।
  • समस्त भू-लोक में मँगल-गान बजने लगे। शँख-ध्वनि से दिशाएँ गुँजायमान हो गईं। पूरी की पूरी सँस्कृति नृत्य से झूमने लगी। चारों दिशाओं में शुभ लक्षण दिख रहे थे।
  • कुछ दिन तक तो ठीक चला। पर तभी लोगों ने देखा कि इस चमत्कारी बालक ने जो चक्र थाम रखा है वह दिव्य नहीं बल्कि चाईना शॉप से खरीदा हुआ पैंतीस रूपये वाला आइटम है। किसी ने खबर लीक कर दी कि ना केवल इसका चक्र बल्कि इसका शँख, इसकी मुरली, मोर मुकुट और यहाँ तक कि इसके मेक-अप की किट भी लाल किले के पीछे वाले चोर मार्केट से खरीद कर लाए गये हैं।
  • यह भी अफवाह फैला दी गई कि जो चारण गण इस नये अवतार की वँदना गा रहे थे वे भी एक कॉन्ट्रैक्टर के पास से मँगवाए गए बाउन्सर्स हैं।
  • इसके बाद पूजक सँस्कृति के सामने बड़े सवाल खड़े हो गये हैं।
  • सबसे बड़ा सवाल यह है कि अब इस खण्डित देव-प्रतिमा का क्या करे? इसे कहाँ जल प्रवाहित करे?
  • अँत में यही निर्णय लिया गया कि इस चाइनीज़ गुणों वाली क्राँति के कबाड़ को यदि चाईना वापिस नहीं लेता है तो इसकी पूँछ में रॉकेट बाँध कर होली के बाद इसे  चाँदीपुर से दाग दिया जाए। उसके बाद ये जिसके भी आँगन में पड़े ये उसकी मुसीबत। हमारे सिर से तो बला टल ही जाएगी।

THE COMPLETE ARTICLE IS AT THE LINK


Tuesday, January 21, 2014

सत्य प्रति घंटा

सत्य प्रति घंटा

आपने सत्य के कई रूप देखे होंगे। दार्शनिकों से आपने सत्य के कई भेद भी जाने होंगे। कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं कि एको सत् विप्रा बहुदा वदन्ति। मोहनदास नामके एक महात्मा ने एक सत्य के साथ किये गए अपने प्रयोगों को लेकर एक पुस्तक – माई एक्सपैरिमैन्टस विद ट्रुथ लिखी थी। यानी कि आपका साबका सत्य के विविध रूपों से रंगों से पड़ा होगा। परन्तु पिछले दिनों से एक विशिष्ट श्रेणी का सत्य दिल्ली की सड़कों पर घूमता देखा जाता है। यह है – सत्य प्रति घंटा।
… …
ऐसी ही एक कथा आजकल दिल्ली में बाँची जा रही है। यहाँ भी केजरीवाल नामक नया नायक अवतरित हुआ है। यह सदैव सही होता है। यह सदैव सत्य होता है।  और इनके सत्य भी इन्द्रधनुषी होते हैं। सुबह वाल सत्य। कल वाला सत्य। रामलीला ग्राउण्ड वाला सत्य। सचिवालय वाला सत्य। प्रातः 10 बजे वाला सत्य। 11 बजे वाला सत्य। शाम 7:30 बजे वाला सत्य। आदि आदि। कुछ लोगों ने पूछा कि इनका सत्य हर घँटा बदल क्यों जाता है। पहले कुछ कहते हैं बाद में कुछ कहते हैं परन्तु फिर भी दोनों सत्य। लोग चकित हैं कि ऐसा कैसे हो पाता है। तभी कुछ विद्वान सामने आते हैं। एक शायद कविता पढ़ते हैं। दूसरे शायद तड़ी मारते हैं। तीसरे बहुत विद्वान स्वरूप हैं। दाढ़ी रख छोड़ी है और बहुत शाँत भाव से मद्धिम स्वर में बात करते हैं।

कवि महोदय गा रहे हैं –
जिसने माँ का दूध पिया आकर जरा दिखाये
दाँत तोड़ दें, आँख फोड़ दें गूँगा उसे बनाएँ
ऐसी मार लगाएँ उसको वो पाछे पछताए

तड़ीमान महोदय उदघोष कर रहे हैं – अगर हमारे या नायक के सत्य पर प्रश्न उठाए गए तो प्रलय कर देंगे। हमें दिल्ली की जनता ने चुन लिया है हम अपराजेय हैं।  हमारे सत्य पर प्रश्न उठाने वाले लोग तैयार हो जाएँ हम आ रहे हैं। हम तुम सबके मुँह पर कालिख पोत देंगे। ... ...

तीसरे विद्वान स्वरूपा आत्मन शुरू करते हैं – सज्जनों आप सब जानते हैं। विश्व परिवर्तनशील है। हर पल बदलता है। हर कण हर क्षण बदलता है तो हमारे राजन का सत्य भी तो इसी दुनिया का सच्चा स्वरूप है। वह भी बदलता है। यह बड़ा साईंटिफिक भी है। आइंस्टीन ने स्पेस – टाईम की जिस सिंगुलैरिटी का ज़िक्र किया है वह यही तो है जो हमारे राजा बताते हैं। जैसे जैसे स्पेस – टाईम बदलता है उससे निकला सत्य भी बदलता है। जो अज्ञानी लोग इसे समझ नहीं पाते हैं मेरा सुझाव है कि वे लोग पहले आइंस्टीन की थ्योरी पढ़ लें उसके बाद ही मुझसे सवाल करें तो मेरे उत्तर समझ सकेंगें।

जनता अभिभूत है। क्या चौकड़ी है? कुछ भी साबित कर देते हैं। बल्कि सब कुछ कर देते हैं। अगर सामान्य लोगों को यह हुआ काम नहीं दिखता तो इसलिये कि वे काँग्रेस और भाजपा के झाँसे में आ गये हैं।

और इस प्रकार राजा ने अपना राज काज शुरू कर दिया है। हर एक घंटें एक नया सत्य नोटिस बोर्ड पर चिपका दिया जाता है। जनता इस नए सत्य प्रति घंटा से कहीं चौंधिया गई है और कहीं बौरा गई है। परन्तु क्या मज़ाल कि कोई सवाल पूछने की हिमाकत कर सके। जवाब देने के लिए वीर – चौकड़ी कहीं आसपास ही जमी हुई है।
THE COMPLETE ARTICLE IS AVAILABLE AT


Tuesday, January 7, 2014

AAP को गाली मत दो ना!

AAP को गाली मत दो ना!!!


किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला तो धुर विरोधी दो दलों ने कुछ अभिनय किया, कुछ प्रहसन किये कुछ गालियाँ दीं और कुछ गालियाँ सुनीं। फिर गले मिले गए और दिल्ली में एक सरकार अवतरित हुई – AAP सरकार। काँग्रेस को प्रत्यक्ष सत्ता तो नहीं मिली पर सुकून बहुत मिला। उनकी चिर प्रतिद्वन्द्वी भाजपा सत्ता से दूर हो गई। और एक अन्य आशा भी काँग्रेस को मिली।
... ...
इस बार खेला थोड़ा सा अलग है। लगता है कि इस बार काँग्रेस पुनर्जीवन की कामना नहीं कर रही है बल्कि एक छायाप्रेत को जीवित कर रही है। एक ऐसा प्रेत जो उसे छोड़कर अन्य सभी को भस्म कर देगा। काँग्रेस को लग रहा है कि यह प्रेत पितृ ऋण से ओत प्रोत होने के कारण काँग्रेस को नुकसान नहीं पहुँचायेगा जबकि अन्य जो भी उसके सामने पड़ेगा वह छायाप्रेत उसे ही लील जाएगा। काँग्रेस को शायद लग रहा है कि आज के समय में AAP की पब्लिक इमेज उसका छायाप्रेत बन सकता है। यदि उसे पाला पोसा जाए तो यह प्रेत कल सब विरोधियों को खासकर भाजपा और मोदी को लील जाएगा। काँग्रेस गणना कर चुकी लगती है। यह प्रेत वही काँग्रेसी आशा है जिसकी चर्चा इस लेख के शुरू में किया गया था।

महाभारत युद्ध में जब अर्जुन भीष्म को पराजित करने में खुद को अक्षम पा रहे थे तो उन्होंने एक अन्य यौद्धा की आड़ लेकर भीष्म पर बाणों की वर्षा की और उन्हें जमीन पर गिरा दिया। क्या काँग्रेस भी भाजपा को पराजित करने में खुद को अक्षम पाते हुए एक आड़ तैयार कर रही है ताकि आगामी चुनावी महाभारत में भाजपा पर बाण वर्षा की जा सके? इस दृष्टिकोण से तो यह एक सटीक राजनीतिक गणना लगती है।

इस गणना के परिणामस्वरूप ही संभवतः आज हर टीवी शोज़ में, राजनीतिक चर्चाओं में, निजी बातचीत में, गोष्ठियों में सभी काँग्रेसी एक ही बात कह रहे हैं – AAP को गाली मत दो ना! काँग्रेस के बड़े नेता कह रहे हैं कि सब राजनीतिक दलों को – काँग्रेस को, भाजपा को और अन्य क्षेत्रीय दलों को AAP से सीखना चाहिये। वे लोग कह रहे हैं कि यदि सब दलों ने AAP से ना सीखा तो सब दल मिट जाएँगे। वे कह रहे हैं कि सब कुछ करो पर AAP की आलोचना ना करो।

सवाल है कि -
  • काँग्रेसी नेता आजकल काँग्रेस की अपेक्षा AAP की छवि सुधारने की कोशिश में क्यों जुटे हैं?
  • वे काँग्रेस के पुनरुत्थान की अपेक्षा AAP के उत्थान के लिये अधिक चिंतित क्यों हैं?
  • क्या लोगों का यह कयास ठीक है कि AAP वस्तुतः काँग्रेस की B टीम है?
  • क्या काँग्रेस इस बार प्रत्यक्ष सत्ता ना लेकर अपने प्रोक्सीज़ के द्वारा सत्ता पाना चाहते हैं जैसा कि उन्होंने दिल्ली में किया है?
  • क्या उनके तमाम राजनीतिक प्रयास अब अखिल भारतीय कठपुतली आयोजन बनकर रह गए हैं?

इन सब प्रशनों के उत्तर यदि काँग्रेस नहीं देगी तो जनता देने को उत्सुक हो जाएगी। बेशक कुछ माह पश्चात!

THE COMPLETE ARTICLE IS AT



Sunday, December 29, 2013

भ्रष्टाचारण – ये कौन बोला

भ्रष्टाचारण – ये कौन बोला


दिल्ली में आजकल हरकोई भ्रष्टाचार की बात कर रहा है। अनके लोग भ्रष्टाचार की बात कर रहे हैं और कुछ और ज्यादा लोग भ्रष्टाचार उन्मूलन की बात कर रहे हैं। हरकोई चर्चा में भाग लिए जा रहा है। भ्रष्टाचार उन्मूलन जैसे नया नारा बन गया हो। भिन्न भिन्न लोग भिन्न भिन्न बातें कर रहे हैं।

जहाँ कहीं भी सँसाधन की उपलब्धता माँगने वालों से कम होती है और उन कम सँसाधनों का बँटवारा स्वयँ एक समस्या बन जाती है वहाँ इस बँटवारा समस्या को भ्रष्टाचार के नियमों से हल किया जाता है।

·       जब राशन कम हो और राशन कार्ड अधिक हों और उद्देश्य राशन पाना हो
·       जब लाईन लंबी हो और आपके पास समय कम हो और उद्देश्य काऊँटर पर पहुँचना हो
·       जब सीटें कम हों और एडमिशन चाहने वाले ज्यादा हों और उद्देश्य एडमिशन पाना हो

ऐसे अनेक दृष्टाँत हो सकते हैं। समस्या कैसे सुलझाई जाए? इन सब बातों में एक मात्र उपाय अपने स्थान को सुरक्षित करना होता है।

कुछ सिद्धाँतकार ऐसे में किसी नियम जैसे कि मैरिट-लिस्ट आदि के द्वारा समाधान का सुझाव दे सकते हैं। लेकिन इस उन लोगों को कैसे संतुष्ट करें जो मैरिट-लिस्ट से बाहर रह गए हैं, जो असफल हो गए हैं। उन्हें असँतोष होता है। यह असँतोष तब अधिक भीषण होता है जब बाहर रह गए लोग अधिक साधनसम्पन्न हों। यह समस्या का यथार्थ रूप है। सफलता के आकाँक्षी लोगों को असफलता का स्पष्टीकरण (जैसा कि मैरिट-लिस्ट) नहीं चाहिए बल्कि सफलता की प्राप्ति चाहिए। उन्हें अपनी सीट चाहिए। बस यहीं से भ्रष्टाचारण का विचार पनपता है।

जिस बात को लोग भ्रष्टाचारण कह रहे हैं वह एक पूरा दर्शन(शास्त्र) है उसे सही परिप्रेक्ष्य में समझा जाना चाहिए। और यह दर्शन ऐसे है कि संसाधनों को विश्व – विजयी होना चाहिये। उसे सबसे ऊपर यहाँ तक कि मैरिट से भी ऊपर होना चाहिए। इसके लिए संसाधनों का एक भाग सिर्फ इस लिये व्यय कर दिया जाता है ताकि शेष संसाधन सर्वोच्च शिखर पर विराज सकें। इसी शिखर पर सीट और सफलता रहते हैं।

मुद्दा यह है कि भ्रष्टाचारण को किस दृष्टि से देखा जाता है। सर्वप्रथम तो इसे इसके दार्शनिक परिप्रेक्षय में समझा जाना चाहिये। अलग अलग स्थितियों में यह अलग अलग नजर आता है। यदि यह किसी की सहायता करता है तो वह इसका चयन कर लेता है और अगर यह प्रतिद्वंद्वी की सहायता करता है तो इसकी आलोचना की जाती है। भ्रष्टाचारण के प्रति आपका नज़रिया मूलतः इसके द्वारा पड़ने वाले प्रभाव से तय होता है। यह तरीका – सुविधामूलक आलोचना कहलाता है।

इस देश-काल में भ्रष्टाचारण के प्रति कही जा रही उग्र और भीषण बातें मुख्यतः इसी सुविधामूलक आलोचना से पैदा हुई बातें हैं। दिल्ली में, या फिर कहें कि पूरे समाज में ऐसे कितने मातपिता हैं जो स्कूल से दूरी के नियमों का उल्लँघन करके भी अपने बच्चों का दाखिला किसी प्रतिष्ठित स्कूल में करवाने से खुद को रोक पाएँगे। कितने लोग होंगे जो ड्राईविंग लाइसेंस के लिए कुछ रुपये खर्च करने की बजाए सब कागजातों और मेडिकल चैकअप के चक्कर में पड़ना चाहेंगे?

मेरा काम पहले हो जाए, सुविधा से हो जाए, बिना किसी ज़रब पड़े हो जाए – इसके लिए थोड़ा बहुत खर्च भी करना पड़े तो कोई बात नहीं। आराम के लिए ही तो कमाते हैं। यह सोच ही संसाधन सम्पन्न सोच है। यही सोच नियमों के उल्लँघन को प्रेरित करती है। परन्तु यह सोच बहुत स्वभाविक है। जैसे जैसे व्यक्ति आर्थिक प्रगति करता है वैसे वैसे वह अपने समय का आर्थिक आकलन करने लगता है। यदि किसी निश्चित समय में व्यक्ति घूस की रकम की तुलना में अधिक आय अर्जित कर सकता है तो वह घूस का सहारा लेता है। यह स्वतः उपजा हुआ भ्रष्टाचारण है। यह कर्ता के द्वारा खुद किया जाता है।

यह घूस का सवाल तब और मुश्किल बन जाता है जब किसी अवसर के लिए एक से अधिक प्रतिद्वंद्वी हों। यदि ये प्रतिद्वंद्वी समान रूप से योग्य हों, मैरिटधारी हों तो प्रश्न और अधिक ज्वलँत बन जाता है। मानवीय स्वभाव के अनुसार वाँछित परिणाम के लिए सभी प्रतिद्वंद्वी पूरा प्रयास करेंगे। प्रयासों की यह आवश्यकता ही उन कामों की जननी है जिन्हें आजकल कुछ लोग भ्रष्टाचारण कह रहे हैं।

आजकल कुछ लोग मीडिया में छाए हुए हैं। वे लोग भ्रष्टाचारण को खत्म करने का आश्वासन दे रहे हैं, हुँकार भर रहे हैं। उन लोगों को बताना चाहिए कि ऐसा करके वे क्या कहना चाह रहे हैं? क्या वे कह रहे हैं कि वे किसी भी कीमत पर सफल होने की मानवीय जिजिविषा को रोकने की बात कह रहे हैं? क्या वे ज्ञात इतिहास के मानवीय विकास-क्रम को मोड़ देने की बात कर रहे हैं। या वे जनता को मात्र बहका रहे हैं।

ऐसे ज्ञानियों में से कुछ को लग सकता है कि  यह लेख उक्त भ्रष्टाचारण की प्रशँसा कर रहा है। ऐसा नहीं है। यह लेख भ्रष्टाचारण की ना तो प्रशँसा करता है ना ही निँदा। यह तो भ्रष्टाचारण को समझने की कोशिश करता है। यह उन दावों और वादों को भी समझने की कोशिश करता है जो बिना समझे बूझे ही भ्रष्टाचारण के सम्बंध में किये जा रहे हैं।

भ्रष्टाचारण एक मानवीय प्रवृत्ति है, यह जन्मजात है, यह जिन्दा रहने की ललक का नतीजा है, यह ऊँचाई की दौड़ में सर्वोच्चता पाने की चाहत की बुनियाद पर खड़ी है। आज का सिस्टम इस मानवीय प्रवृत्ति को एक बुरा नाम – भ्रष्टाचारण देता है। पता नहीं भविष्य क्या करेगा। हो सकता है यह प्रवृत्ति उपयोगी हो, पीड़ादायक हो, छलावा हो, निर्णायक हो, उत्तेजक हो, आनन्ददायी हो, शूलकारक हो – जो भी हो यह एक मानवीय आदिम प्रवृत्ति है और इसके बिना मानव नाम का यह जीव इस विकास अवस्था तक नहीं आ सकता था। इस प्रवृत्ति को इसी रूप में समझा जाना चाहिए।

THE COMPLETE ARTICLE IS AT




Thursday, December 26, 2013

Rajkumar Kejri

एक आवत एक जात

कबीर के दो दोहे हैं

पतझड़ आ गया है। पत्ते झड़ने लगे हैं। नीचे गिरते हुए पत्ते बहुत डिप्रैस्ड फ़ील कर रहे हैं। एक पत्ता आखिरकार कह ही उठता है

पत्ता बोला पेड़ से सुनो वृक्ष बनिराइ
अबके बिछड़े ना मिलैं दूर पड़ेंगे जाइ।।

सनातन वृक्ष के लिए पत्तों का आना जाना उतना सीमित अनुभव नहीं है। वह अनेक पतझड़ और वसन्त देख चुका है। वह इस निरन्तरता को पहचानता है। वृक्ष ने उत्तर दिया

वृक्ष बोला पात से सुन पत्ते मेरी बात
इस घर की यह रीत है एक आवत एक जात।।

अतः यहाँ से इति AAP कथा – राजकुमार केजरी


भारतीय राजनीति को गौर से देखने वाले जानते हैं कि राज्यों का भारत में विलय, चीनी आक्रमण, नेहरू-निधन, कामराज प्लान, कांग्रेसी सिंडिकेट, संविद सरकारें और इंदिरा का उदय भारतीय राजनीति के मील के पत्थर तो हैं लेकिन युगाँतरकारी घटनाएँ नहीं है। इन घटनाओं पर भारतीय इतिहास ने करवटें तो बदली परन्तु राजनीति की धमनियों में वही खून दौड़ा किया।

लेकिन सन् पिच्छत्तर की इमरजैंसी ने जैसे पिछले पाँच हजार साल से सोते भारत को झकझोर दिया था। विपक्ष ने इमरजैंसी की अ-लोकताँत्रिक छवि की बहुत आलोचना की है। काँग्रेस ने उस निर्णय का बचाव किया है। इस राजनीतिक प्रशँसा-आलोचना से परे उस इमरजैंसी ने भारत के जनमानस को सोते से जगाया था। जागने पर जनता ने अँगड़ाई ली और अँगड़ाई लेते लेते 1977 आ गया था। तब भारत की उस निरीह जनता ने जो पाठ महात्मा गाँधी से पढ़ा था उसे दोहरा दिया। एक स्थापित साम्राज्य 1947 में चूर हुआ था दूसरा तीस बरस बाद 1977 में हो गया। वह भारतीय संदर्भों में हुई एक रक्तहीन रूसी क्राँति थी। तत्कालीन लेखों में लिखा गया कि 60 बरसों के बाद रूसी क्राँति भारत में घटित हो गई थी। परन्तु यह इतनी भर ना थी। रूसी क्राँति एक दिशा में चलने वाली रेल थी तो भारतीय क्राँति उससे अधिक व्यापक और गहन अर्थों वाली थी। इसके ये अर्थ और व्यापकता आने वाले वर्षों में साबित हुए। इसलिए भारत के राजनीतिक इतिहास को लिखते समय 1975 का साल बिना किसी हानि के एक रेफरैंस प्वाइँट के रूप में लिया जा सकता है। यहाँ इस लेख में समय की गणना साल 75 से ही की गई है।
… …
केजरीवाल ने जनता से वादे किये। उन्होंने जनता को कहा कि पुराने राजनीतिज्ञों का यकीन ना करो क्योंकि वे झूठ बोलते हैं। उन्होंने बहुत बेझिझक अँदाज में कहा कि वर्तमान राजनीति में जो लोग उनके साथ हैं सिर्फ वे ही ईमानदार हैं शेष सब बेईमान हैं। इतना ही नहीं उन्होंने एक ऐसी शब्दावली का प्रयोग किया जो बिल्कुल नई थी और जिसे याद करने के लिए भी दोहराया नहीं जा सकता। तमाम परिभाषित रूपों को तोड़ दिया गया। उनके साथ चलने वाले और स्वयँ को उच्च साहित्यकार कहने वाले लोगों ने तो ऐसे ऐसे भाषिक प्रयोग किये कि मदिरा पान के बाद सड़क पर लड़ने वाले यौद्धाओं ने भी दाँतो तले उँगलियाँ दबा ली थीं। समसामयिक सिनेमा का प्रभाव कहये या कुछ और कहिये लोगों को यह केजरीवाल – आल्हा बहुत पसँद आई और उन्होंने उसे बहुत ध्यान और चाव से सुना। अपने वोट के रूप में सकारात्मक उत्तर भी दिया। आज केजरीवाल बाबू पर सत्ता का चँवर डुलाया जा रहा है।

जैसा 1977 में भारतीय-काँग्रेस ने महसूस किया था वैसा ही 2013 में दिल्ली-काँग्रेस ने महसूस किया। अन्य विपक्षी दल भाजपा सदमा, राहत, हैरानी, घात और किंकर्त्तव्यविमूढ़ता (दुविधा) के मिले जिले भावों से ग्रस्त है। उससे ना बोलते बन पड़ रहा है और ना ही चुप रहते।
… …
ऐसे में नीले आसमान में सफेद घोड़े पर बैठा यह केजरीवाल नाम का राजकुमार जिस जादू की छड़ी को हिला कर भारत के समाज को बदलने की घोषणा कर रहा है वह कितनी विश्वसनीय है यह एक ऐसा सदका है जिस आने वाला समय बहुत जल्द जनता के सामने उतारने वाला है। लेकिन इसे सिर्फ़ समय के सहारे नहीं छोड़ा जा सकता। इसका क तार्किक आकलन आवश्यक है।

THE COMPLETE ARTICLE IS AT THE LINK BELOW: